Friday, 2 January 2015

ख़याल - II

कभी फुर्सत में होता हूँ, तो कुछ पल लौट आते हैं,
जो कल को याद करता हूँ, तो लम्हे छूट जाते हैं.
कोई बंदिश नहीं है ये फलसफा ज़िन्दगी का,
यहां  पलकें नहीं गिरती और सपने टूट जाते हैं.

मैं जब जज़्बात लिखता हूँ, वो बस अलफ़ाज़ पढता है,
है माहिर खूब अदाओं का, हमें फनकार कहता है!
माना हकीकत यूँ ही बयाँ करते नहीं लेकिन,
जाने क्यों वो हर एक झूट से भी इंकार करता है,

सोचा कभी फिर से, मैं यूँ ही दूर चला आया,
जो देखा कभी मुड़के, अकेला था मेरा साया.
किया हर अर्ज़, लिखा हर लफ्ज़ तो वो सुनते रहे शायद, 
जो थे जज़्बात उन्हें ज़ाहिर मैं ही कर नहीं पाया.

जो कल तक अर्ज़ियाँ करता, वो अब खामोश बैठा है,
दीवारों और सलाखों से ही अब इरशाद’ कहता है.
सजा--इश्क़ उसे यूँ ही मुक़र्रर हो गई लेकिन,
जो है मुजरिम वो ही खुद कहीं  आज़ाद बैठा है.

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