Monday, 10 August 2015

ख़याल - IV

ले चले हम उनको खुदा के दर पे,
सोचा खालिक से उनको रूबरू करते.
वर्ना इतना ही यकीन होता इबादत पे,
तो बाखुदा मुहब्बत नहीं शिकायत करते.
 
जाने की ज़िद कर यूँ गए वो,
चाह के भी करना इंकार नहीं आया.
हैरत हुई बेरुखी पे उनकी,
एक पल भी जाने क्यों ऐतराज़ नहीं आया.

शिरकत की महफ़िलों में हमने,
बाँटने ये दर्द कोई हमराज़ नहीं आया.
डुबो दिया हर ग़म हर जाम में लेकिन,
अंजाम--मोहब्बत फिर भी कुछ रास नहीं आया.

हसीनो को रुखसत करती रहे नज़रें,
गुस्ताख़ दिल को फिर मगर प्यार नहीं आया.
जहाँ जान--जहां देखे, हमे-
एक तस्वीर भुला दे वो दीदार नहीं आया. 

ग़ालिब बने शायर, आशिक फरहान हुए,
हाल--दिल जो केह दे वो फनकार नहीं आया.
हटा देता इस दर्द की रेहमत,
ग़मों का बेवक्त कोई कर्ज़दार नहीं आया.

सुनते हैं तनहा हैं वो भी, शायद-
हमसे बढ़ कर उनका कोई हकदार नहीं आया.
हर अर्ज़--दर्द पर 'वाह!' उठती रही,
लबों पे उनके मगर इकरार नहीं आया.

एक 'हाँ!' की गुज़ारिश में ज़िन्दगी गुज़ार दी,
और वो बोले हमें इज़हार नहीं आया.
गुज़ार दी ना जाने घड़ियाँ कितनी,
अब तक करना इंतज़ार नहीं आया.

फ़कीर थे उनके, फिर काफ़िर हो गए,
पर इस जूनून पे उनको ऐतबार नहीं आया.
किसी लिए जन्नत मुक़र्रर हो गई,
और मेरी तकदीर में इक मज़ार नहीं आया...